Tuesday 11 December 2018

जयपुर की सैर: भाग 1...


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1.  जयपुर की सैर: भाग 1...

  घुमक्कड़ी भी एक लत है। यह समय के साथ बढ़ती ही जाती है। फिर ऐसा भी होता है कि आप इसे और लोगों में फ़ैलाने लगते हैं। 

दो साल पहले हम लोग अपनी देहरादून और ऋषिकेश की यात्रा पर गए। पूरा ट्रिप बहुत बढ़िया रहा। ख़ास तौर पर बच्चों ने बहुत एन्जॉय किया। इस साल हम एक छोटे से वीकेंड ट्रिप में चंडीगढ़ भी जा कर आये। 

हमारी ये दोनों ही यात्रायें अपनी गाड़ी से हुईं। अब बच्चों की अगली फरमाइश ट्रेन में सफर करने की थी। इस बीच उन को एक बार रेलवे स्टेशन भी ले जाना हुआ। मेरे मम्मी पापा अहमदाबाद जा रहे थे और मैं उनको नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ने गया। दोनों शैतान जिद कर हमारे साथ स्टेशन चले गए। अपने दादा दादी से पहले खुद ट्रेन में चढ़ कर बैठ गए और ट्रेन के रवाना होने के समय पर मुश्किल से नीचे उतरे। 

इसके बाद इनकी फरमाइश कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ गयी। आखिर मौका देख हमने जयपुर का प्रोग्राम बना लिया।
ट्रेन की टिकटें बुक हुई। होटल में भी बुकिंग करा ली गयी। अपने अपने स्कूल और ऑफिस से छुट्टियां भी ले ली गयीं। अब लगभग रोज ही इस ट्रिप का प्लान बनता। कभी चेयर कार तो कभी स्लीपर क्लास के बारे में सवाल पूछे जाते। कभी AC और नॉन AC डिब्बों का अंतर बताना पड़ता। और कभी ट्रेन में मिलने वाले खाने की चर्चा होती । 

यानि बच्चों का उत्साह और उत्सुकता दोनों ही बढ़ रहे थे। 

दिल्ली से जयपुर जाने के लिए बहुत सी ट्रेन हैं। इनमें नयी दिल्ली से चलने वाली अजमेर शताब्दी एक्सप्रेस सबसे प्रमुख है। 

किन्तु शताब्दी एक्सप्रेस सुबह बहुत जल्दी चलती है। 6 बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए 5 बजे घर से निकलना पड़ता। 5 बजे घर से चलने के लिए 4 बजे तो उठना ही पड़ता। और बच्चों के साथ इतनी सुबह उठ कर स्टेशन जाना थोड़ा मुश्किल था। 

फिर शताब्दी में सिर्फ बैठने की सीटें होती हैं इसलिए ट्रेन में नींद भी नहीं पूरी कर पाते । अगर नींद पूरी न हो तो दिन में घूमना भी मुश्किल था। 

तीसरा कारण होटल में चेक-इन समय का था। शताब्दी एक्सप्रेस सुबह 10:40 पर जयपुर पहुँच जाती है। इस समय जयपुर पहुँच कर होटल में चेक-इन हो पाना मुश्किल था। आमतौर पर चेक-इन का समय दोपहर 12 बजे के बाद ही होता है। 

इसलिए हमने शताब्दी एक्सप्रेस से यात्रा का प्लान ड्रॉप किया और पोरबंदर एक्सप्रेस में 2nd AC से टिकट करा ली। बेटी का टिकट लगना ही नहीं था। बेटे का टिकट 60% किराये के साथ बिना सीट लिए करा लिया गया। हमारे पास बैठने और सोने के लिए पूरी 2 सीटें यानि लोअर और अपर बर्थ थीं। यह ट्रेन सुबह 8:20 पर दिल्ली सराय रोहिल्ला स्टेशन से चल कर दोपहर 1:15 पर जयपुर पहुँच जाती है । इसलिए सुबह बहुत जल्दी उठने का झंझट भी नहीं था। 

यात्रा के दिन से एक दिन पहले पैकिंग शुरू हुई।  दिल्ली में अच्छी खासी ठण्ड थी इसलिए पर्याप्त गरम कपडे पैक किये गए। 

हम लोग ट्रेन का खाना नहीं खाना चाहते थे इसलिए नाश्ते के लिए घर से परांठे ले जाने वाले थे। सर्दियों में मेथी के परांठों से अच्छा और क्या होता, इसलिए शाम को ही मेथी खरीद कर साफ़ की गयी। बच्चों ने इस कार्य में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। मेथी के साफ़ पत्ते काट भी दिए गए। सुबह सिर्फ परांठे बनाने का ही काम बचा था। मोबाइल में अलार्म लगा कर हम सो गए। 

सुबह 5:30 पर मेरा अलार्म बजा। उठ कर जल्दी नहा धो लिया। इसके बाद बेटे को उठा कर तैयार किया और फिर बेटी को। श्रीमती जी इस बीच नाश्ता तैयार कर पैक कर चुकीं थीं। 6:30 बजे तक सब तैयार हो चुके थे। एक कप चाय और दो बिस्किट के बाद टैक्सी बुक की गयी और 5 मिनट में टैक्सी घर के बाहर थी। 

बच्चों ने दादा दादी से विदा ली, उन्हें ढेर से फोटो भेजने और जयपुर से मिर्ची बड़ा लाने का वादा किया। ठीक 7 बजे हम घर से चल पड़े। 

सर्दी की सुबह सड़कें लगभग खाली थीं। सिग्नेचर ब्रिज को खुले हुए कुछ ही दिन हुए थे। ब्रिज से होते हुए हम 40 मिनट में सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन पहुँच गए। टैक्सी को स्टेशन पार्किंग के गेट के पास रुकने के लिए बोला। यहाँ से स्टेशन का प्लेटफार्म न. 1 बिलकुल सामने था। हमारी ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। अपना कोच ढूंढ अंदर जाने लगे लेकिन कोच का AC न चलने के कारण बाहर बेंच पर ही बैठ गए। हमने इस समय का उपयोग बच्चों को ट्रेन और स्टेशन दिखाने में किया। 

श्रीमती जी सामान के साथ बेंच पर ही बैठी रही और हम तीनों लोग प्लेटफार्म पर टहलते टहलते ट्रेन के इंजन तक पहुँच गए। इंजन देख कर वापस आते हुए जनरल, स्लीपर और 3rd AC कोच भी देखे। रेल नीर खरीदते हुए वापस अपने कोच तक पहुंचे और ट्रेन के अंदर चढ़ गए। सीट के नीचे सामान लगा दिया गया। हमारे सामने वाली सीट पर एक विदेशी जोड़ा बैठा था और साइड वाली अपर लोअर सीटों पर एक भारतीय बुजुर्ग दंपत्ति थे। 

अब हम ट्रेन के चलने का इंतजार कर रहे थे। ठीक समय पर ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया। बाजु वाले कूपे की सारी सीटें खाली थीं तो मैं दोनों बच्चों को ले कर वहां बैठ गया और हम खिड़की से बाहर देखने लगे। ट्रेन दिल्ली के बहुत से स्टेशनों जैसे दया बस्ती, पटेल नगर आदि होते हुए अपने अगले स्टॉप दिल्ली कैंट की तरफ बढ़ती रही। 

इस बीच शैतान पार्टी ने ट्रेन के सारे स्विचों को दबा कर देख लिया, साइड बर्थ को उठाना गिरना सीख लिया, सीट न. पर लिखे ब्रेल लिपि को समझा, इमरजेंसी निकास वाली खिड़की ढूंढ आये और ट्रेन रोकने के लिए खींचने वाली चेन का भी पता कर लिया। 

यानि ये लोग अपना असाइनमेंट पूरा कर के ही मानने वाले थे!!

थोड़ी देर में हम दिल्ली कैंट पहुंचे। 

"कैंट का क्या मतलब है? एक बोर्ड पर दिल्ली छावनी भी लिखा है।" बेटे ने पूछा। 

कैंट का मतलब समझा ही रहे थे कि बेटे ने दूर खड़ी Palace on Wheels ट्रेन को देख लिया। इस के बारे में वो अपनी स्कूल बुक में पढ़ चुके थे। अब हमारी चर्चा भारत की टूरिस्ट ट्रेनों पर चली गयी। और सवालों के जवाब देते देते हमें गूगल की सहायता लेनी ही पड़ी। 

आज समझ आया कि गृह कार्य और तैयारी की जीवन में कितनी अहमियत है!!

इस बीच ट्रेन कैंट से चल पड़ी थी। अगला स्टेशन पालम था। यहाँ भी 2 मिनट का स्टॉप था। इसके बाद ट्रेन इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे के पास से हो कर निकली। बहुत से विमान एयरपोर्ट की बाउंड्री के बिलकुल पास खड़े थे। ख़ास तौर पर एयर इंडिया का एक Boieng 747 भी था। इसके विशाल आकार के सामने बाकी विमान छोटे लग रहे थे। 

ट्रेन अब काफी तेज गति से चल रही थी। थोड़ी देर में गुरुग्राम, गढ़ी और पटौदी रोड स्टेशन भी निकल गए। तीनों स्टेशनों पर गाड़ी 2 - 2 मिनट के लिए रुकी। ये वाला कूपा अभी तक खाली था इसलिए हम यहीं बैठे रहे। बीच में टीटी महोदय आये तो मैं अपनी सीट पर जा टिकट चेक करा आया । 

रिवाड़ी स्टेशन आने पर हम अपनी सीट पर आ कर बैठ गए। 10 बजे से अधिक का समय हो गया था। भूख लगने लगी थी। सामने बैठा अंग्रेज जोड़ा अपने अपने मोबाइल में व्यस्त था । साइड वाली सीट पर बैठे अंकल और आंटी खाना खा रहे थे।

हमने भी अपने साथ लाया लंच बॉक्स निकाल लिया। लंच बॉक्स खोला तो परांठों और अचार की खुशबु सारे डिब्बे में फ़ैल गयी। (AC कोच की यही सबसे बड़ी कमी है।)

पहले अंकल आंटी को परांठो के लिए पूछा तो उन्होंने मुस्कुरा कर मना कर दिया। विदेशियों को पूछना चाह रहे थे लेकिन वो लोग व्यस्त ही रहे। खैर! हमने परांठे और अचार खाने शुरू किये। ये तो पिकनिक ही हो गया था। खिड़की से आती धूप, मेथी के परांठे और आम का अचार। सिर्फ चाय की ही कमी थी।

नाश्ते के दौरान ट्रेन खैरथल स्टेशन पर पहुँच गयी। अब अलवर आने वाला था। अलवर में मेरी ननिहाल है। इसलिए मेरी बहुत सी यादें वहां से जुडी हुई हैं। बच्चे भी अलवर स्टेशन देखना चाहते थे। नाश्ता ख़त्म कर हम वापस दूसरे कूपे वाले सीट पर चले गए। यहाँ एक सरदारजी आ चुके थे। बाक़ी 5 सीटें अभी भी खाली ही थीं। हमने साइड वाली लोअर सीट खोल ली। एक तरफ मैं और मेरी गोद में बेटी बैठी और दूसरी सीट पर बेटा जम गया। और खिड़की से बाहर देखने लगे।

अलवर आने से पहले छोटे छोटे पहाड़ दिखने लगे। कुछ पहाड़ों से खनन होने की वजह से हलके भूरे पत्थरों की दीवार सी बन गयी थी। वैसे भी यहाँ हरियाली कम ही थी। रास्ते के खेतों में प्याज की फसल काट कर छांटी जा रही थी। खेत की भूरी मिटटी पर मैरून रंग की प्याज का ढेर बहुत अच्छा लग रहा था। कुछ खेतों में सरसों और कपास की फसल भी खड़ी थी। कपास के भूरे पौधों पर सफ़ेद रुई बड़ी सुन्दर लग रही थी।

थोड़ी देर में ट्रेन अलवर पहुँच गयी। अलवर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर शेर की बहुत से तस्वीरें बनी थीं। ऐसा इसलिए कि सरिस्का प्राणी उद्यान यहाँ से बहुत पास है। प्लेटफॉर्म की दुकानों पर अलवर का प्रसिद्द कलाकंद भी रखा था। इस मिठाई का कोई जवाब नहीं। मैंने अपने बचपन में कलाकंद बहुत खाया है। मेरे लिए ये आज भी एक रहस्य है कि कलाकंद बाहर से तो सफ़ेद ही रहता है फिर भी अंदर से इतना कैसे सिक जाता है कि भूरा हो जाये।

शायद कभी इस राज से भी परदा उठेगा।

तब तक आप अलवर के कलाकंद पर विद्युत् मौर्या जी का ये ब्लॉग पढ़िए। 

2 मिनट के स्टॉप के बाद ट्रेन यहाँ से चल पड़ी। लगभग 11:30 बज चुके थे। अभी जयपुर पहुँचने में 2 घंटे का समय बाकी था। इसलिए हमने एक नींद लेने का सोचा। वापस अपनी सीट पर पहुंचे। ऊपर वाली बर्थ पर मैं और बेटी सो गए। बाकी दोनों नीचे वाली बर्थ पर लेट गए। मोबाइल में अलार्म भी लगा लिया। लगभग 1 घंटे बाद आँख खुली तो मैं नीचे उतर आया। देखा कि श्रीमती जी और बेटा भी जगे हुए थे। बांदीकुई निकले काफी समय हो चुका था और दौसा आने वाला था।

कुछ देर बाद दौसा पार हुआ। अब ज्यादातर खेत खाली थे। पेड़ों में भी सबसे ज्यादा कीकर और फिर नीम के पेड़ थे। घरों की बनावट भी बदलने लगी थी। ट्रेन की पटरी के आसपास की सड़कों पर रंग बिरंगे साफे पहने पुरुष और रंगीन चुनरी ओढ़े महिलाएं दिखने लगी थीं। अब हम राजस्थान के प्रवेश द्वार, जयपुर, पहुँचने वाले थे।

 थोड़ी ही देर में हम जयपुर के बाहरी इलाके तक पहुँच गए। जयपुर स्टेशन पहुँचने में अब ज्यादा देर नहीं थी। हमने बेटी को जगाया। सामान सीट के नीचे से बाहर निकल लिया और स्टेशन आने का इंतजार करने लगे।

जयपुर के मुख्य स्टेशन से पहले गाँधी नगर स्टेशन आया। यहाँ हमारी ट्रेन का स्टॉप नहीं था वर्ना हम यहीं उतर सकते थे।

ट्रेन के जयपुर जंक्शन पहुँचने तक दोपहर का डेढ़ बज गया था। हम लोग प्लेटफॉर्म पर उतरे। धूप बहुत तेज थी। दिल्ली के मुकाबले यहाँ गर्मी काफी थी। जयपुर स्टेशन पर लिफ्ट और एस्कलेटर की सुविधा उपलब्ध है। हम एस्कलेटर से होते हुए स्टेशन के बाहर निकल आये।

ओला की रेंटल कैब बुक की गयी। कैब के आने पर डिक्की में सामान रखा और होटल की तरफ चल पड़े। लंच का समय हो गया था और सबको भूख लग रही थी। इसलिए हमने होटल पहुँचने से पहले ही लंच करने का निर्णय किया।

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मेथी परांठे 

अलवर जंक्शन 

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